पद्मिनी एकादशी
पद्मिनी एकादशी अधिक माह में आती है। जो एकादशी अधिक माह के शुक्ल पक्ष में आती है उसे पद्मिनी एकादशी कहते हैं। पद्मिनी एकादशी का व्रत जो महीना अधिक हो जाता है उसपर निर्भर करता है इसीलिए पद्मिनी एकादशी का उपवास करने के लिए कोई चन्द्र मास तय नहीं है। अधिक मास को मलमास, पुरुषोत्तम मास के नाम से भी जाना जाता है। इस एकादशी को अधिक मास एकादशी के नाम से भी जाना जाता है।
एकादशी के व्रत को समाप्त करने को पारण कहा जाता है। एकादशी व्रत के अगले दिन सूर्योदय के बाद पारण किया जाता है। एकादशी व्रत का पारण द्वादशी तिथि समाप्त होने से पहले करना अत्यंत आवश्यक है। यदि द्वादशी तिथि सूर्योदय से पहले समाप्त हो गई है, तो एकादशी व्रत का पारण सूर्योदय के बाद ही होता है। द्वादशी तिथि के भीतर पारण न करना पाप करने के समान होता है।
एकादशी व्रत का पारण हरिवासर के दौरान भी नहीं करना चाहिए। जो श्रद्धालु व्रत कर रहे हैं, उन्हें व्रत तोड़ने से पहले हरिवासर समाप्त होने की प्रतीक्षा करनी चाहिए। हरिवासर द्वादशी तिथि की पहली एक चौथाई अवधि होती है। व्रत तोड़ने के लिए सबसे उपयुक्त समय प्रातःकाल होता है। व्रत करने वाले श्रद्धालुओं को मध्याह्न के दौरान व्रत तोड़ने से बचना चाहिए। यदि कोई किसी भी कारण से प्रातःकाल पारण करने में असमर्थ है, तो उसे मध्याह्न के बाद पारण करना चाहिए।
एकादशी का व्रत कभी-कभी लगातार दो दिनों तक चलता है। यदि समझदार हों तो परिवार के सदस्यों को दो दिन के व्रत में पहले दिन एकादशी का व्रत रखना चाहिए। दूसरी एकादशी को द्वितीया एकादशी कहा जाता है। संन्यासियों, विधवाओं और मोक्ष प्राप्ति के इच्छुक श्रद्धालुओं को द्वितीय एकादशी के दिन व्रत करना चाहिए। जब-जब एकादशी व्रत दो दिन का होता है, तब-तब द्वितीय एकादशी और वैष्णव एकादशी एक ही दिन होती हैं।
यह सुझाव दिया जाता है कि जो उत्साही उपासक भगवान विष्णु की कृपा और स्नेह चाहते हैं, वे दोनों दिन एकादशी व्रत रखें।
पद्मिनी एकादशी व्रत कथा
त्रेता युग में एक पराक्रमी राजा थे जिनका नाम कीतृवीर्य था। इस राजा की कई रानियां थीं, लेकिन किसी भी रानी से राजा को पुत्र की प्राप्ति नहीं हुई। इसके कारण राजा और उनकी रानियां तमाम सुख सुविधाओं के बावजूद दुखी रहते थे। इच्छा संतान प्राप्ति की वजह से राजा ने अपनी रानियों के साथ तपस्या करने का निर्णय लिया। हजारों वर्षों तक तपस्या करते हुए राजा की केवल हड्डियां ही शेष रह गईं, लेकिन उनकी तपस्या सफल नहीं हो सकी। तब रानी ने देवी अनुसूया से उपाय पूछा। देवी ने उन्हें बताया कि माल मास के शुक्ल पक्ष की एकादशी का व्रत करने का विधान है।
अनुसूया ने रानी को व्रत के नियम भी बताए। रानी ने फिर देवी अनुसूया के बताए नियमों के अनुसार पद्मिनी एकादशी का व्रत रखा। व्रत की समाप्ति पर भगवान प्रकट हुए और वरदान मांगने के लिए कहा। रानी ने भगवान से कहा, “प्रभु, आप मुझ पर प्रसन्न हैं, इसलिए मेरे पति को वरदान दीजिए।” भगवान ने तब राजा से वरदान मांगने के लिए कहा। राजा ने भगवान से प्रार्थना की कि वे उन्हें ऐसा पुत्र प्रदान करें जो सर्वगुण सम्पन्न हो, जो तीनों लोकों में प्रतिष्ठित हो और जिसे किसी से भी हराने की संभावना न हो। भगवान ने यह कहकर विदा ले ली। कुछ समय बाद रानी ने एक पुत्र को जन्म दिया, जिसे कार्तवीर्य अर्जुन के नाम से जाना जाता है। बाद में वह बच्चा अत्यंत पराक्रमी राजा बना, जो रावण को भी बंदी बना लिया। कहा जाता है कि प्रथम भगवान श्रीकृष्ण ने अर्जुन को पुरुषोत्तमी एकादशी के व्रत की कथा सुनाकर इसके महत्त्व को जागृत किया था।
पद्मिनी एकादशी का महत्व
पद्मिनी एकादशी को माना जाता है कि भगवान विष्णुजी को अत्यंत प्रिय है, इसलिए इस व्रत का विधि-पूर्वक पालन करने वाला व्यक्ति विष्णु लोक को प्राप्त होता है और सभी प्रकार के यज्ञ, व्रत, और तपस्या के फल को प्राप्त कर लेता है।
पद्मिनी एकादशी पूजा एवं व्रत विधि
● प्रातः स्नानादि से निवृत होकर भगवान विष्णु की विधि पूर्वक पूजा करें।
● अधिक मास की शुक्लपक्ष की ‘पद्मिनी एकादशी’ का व्रत निर्जल करना चाहिए रखकर विष्णु पुराण का पाठ करें।
● यदि निर्जल रहने की शक्ति न हो तो उसे जल पान या अल्पाहार से व्रत करना चाहिए।
● रात में प्रति पहर विष्णु और शिवजी की पूजा करें।
● प्रत्येक प्रहर में भगवान को अलग-अलग भेंट प्रस्तुत करें- प्रथम प्रहर में नारियल, दूसरे प्रहर में बेल, तीसरे प्रहर में सीताफल और चौथे प्रहर में नारंगी और सुपारी आदि।
● रात्रि में भजन कीर्तन करते हुए जागरण करें।
● द्वादशी के दिन प्रात: भगवान की पूजा करें (स्नान में तिल, मिट्टी, कुश व आंवले के चुर्ण भी शामिल करें) ।
● फिर ब्राह्मण को भोजन कराकर दक्षिणा सहित विदा करें।
● इसके पश्चात स्वयं भोजन करें